महराजगंज:-हर त्यौहार के मौके पर प्रशासन द्वारा पीस कमेटी की बैठकों में बार-बार एक ही वाक्य दोहराया जाता है— “त्योहार पारंपरिक तरीके से मनाया जाए।” लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर पारंपरिक तरीका क्या है?
छठ पूजा के दौरान सरिता (घाट) बनाने पर रोक, दुर्गा पूजा में दुर्गा की प्रतिमा न रखने की पाबंदी, लक्ष्मी मूर्ति के आकार-प्रकार पर नियंत्रण और मुहर्रम में ताजिया निकालने पर शर्तें... क्या यही है वह परंपरा जिसका हवाला प्रशासन हर बार देता है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि जब प्रशासन “परंपरा” की बात करता है, तो उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि किस वर्ष, किस प्रकार, और किन मानकों पर यह परंपरा तय की गई है। जनता के लिए त्योहार सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। लेकिन लगातार पाबंदियों और अस्पष्ट दिशानिर्देशों से लोग असमंजस में हैं — कि वे अपना त्योहार मनाएं या प्रशासन के आदेशों की व्याख्या करें।
समाजसेवियों का कहना है कि प्रशासन को चाहिए कि पीस मीटिंग में “पारंपरिक तरीका” की परिभाषा सार्वजनिक रूप से बताए और लिखित रूप में दे, ताकि किसी भी त्योहार के दौरान भ्रम या विवाद की स्थिति न बने।
जनता का सवाल सीधा है:
अगर हर बार नई रोक ही “परंपरा” बन जाएगी, तो आने वाले समय में लोग त्योहार मनाना ही छोड़ देंगे।
त्योहारों की आत्मा “आस्था और आनंद” है, आदेश और रोक नहीं!इस बातो से स्पष्ट हो रहा है किसी सम्प्रदाय का कोई त्यौहार मनाना एक टेढ़ी खीर बन जायेगी।प्रशासन के इन शब्दों पर कई जगहों पर अशान्ति का वातावरण जन्म ले लेती है।
प्रभारी महराजगंज
कैलाश सिंह.
